ईरान-इज़राइल-अमेरिका युद्ध: 12 दिनों की जंग और एक असाधारण सीज़फायर

पश्चिम एशिया की आग एक बार फिर भड़की, लेकिन इस बार उसकी लपटें अमेरिका, यूरोप और एशिया तक जा पहुंचीं। ईरान, इज़राइल और अमेरिका के बीच चला 12 दिनों का युद्ध जितना तीव्र था, उससे कहीं अधिक चौंकाने वाला उसका अंत रहा। यह कोई पारंपरिक युद्धविराम नहीं था — यह ऐसा सीज़फायर था जो मजबूरी में, दबाव में और कुछ अर्थों में हार और स्वीकार्यता के भाव में अस्तित्व में आया।
इस युद्ध के सबसे निर्णायक क्षणों में से एक वह था जब ईरानी संसद ने सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हरमुज़ जलसंधि को बंद करने का ऐलान किया। यह वैश्विक तेल आपूर्ति को सीधा चुनौती देने जैसा था। दुनिया का 30% से अधिक तेल इस मार्ग से होकर गुजरता है। इसके बाद कतर में स्थित अमेरिकी एयरबेस पर ईरानी मिसाइलों की बौछार ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह युद्ध अब केवल ईरान और इज़राइल के बीच नहीं है — अमेरिका और उसके अरब सहयोगी अब सीधे निशाने पर हैं। यहीं से इस संघर्ष की दिशा पलटने लगी। सीज़फायर अब किसी की रणनीति नहीं, सबकी आवश्यकता बन गया।
इस बार युद्ध का हासिल क्या रहा?
- नैतिक और राजनीतिक तौर पर ईरान की जीत:
ईरान ने पहली बार सैन्य और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर पश्चिमी गठजोड़ को झुकाया। मुस्लिम दुनिया, जो लंबे समय से सऊदी-यूएई जैसे अमेरिकी समर्थक देशों के प्रभाव में थी, अब तेहरान को एक नए नेतृत्वकर्ता की तरह देख रही है। - इज़राइली प्रचार और सुरक्षा का मिथक टूटा:
इज़राइल की वर्षों से बनाई गई यह छवि कि वह हर हमले से सुरक्षित है, ध्वस्त हो गई। उसका ‘आयरन डोम’ प्रणाली कई ईरानी मिसाइलों को रोक नहीं सकी। उसके शहरों पर हमले हुए, और पहली बार जनता को युद्ध का भय घरों तक महसूस हुआ। - अयातुल्ला खामेनेई की ताकत में इज़ाफा:
ईरानी नेतृत्व, विशेषकर अयातुल्ला खामेनेई, इस युद्ध के बाद घरेलू असहमति को कुंद करने और क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाने में सफल हुए हैं। यह उनके लिए एक वैचारिक और कूटनीतिक बढ़त है। - नेतनयाहू की छवि को गहरा आघात:
बार-बार ‘सुरक्षा के ठेकेदार’ बनकर चुनाव जीतने वाले नेतनयाहू इस बार बैकफुट पर हैं। जनता पूछ रही है कि आयरन डोम के बावजूद राजधानी क्यों दहली? - ट्रंप के ‘MAGA अलायंस’ में दरार:
डोनाल्ड ट्रंप का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ गठबंधन इस युद्ध से बिखरता हुआ दिखा। यूरोपीय देश और NATO इस संघर्ष से दूर रहे, जिससे अमेरिकी वैश्विक नेतृत्व की धार कुंद हुई। - अमेरिका की रणनीतिक नाकामी:
‘बंकर बस्टर’ बमों से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खत्म करने की योजना नाकाम रही। कार्यक्रम को स्थायी नुकसान नहीं पहुँचा। ईरान अब और अधिक प्रतिबद्ध होकर अपने मिशन में जुट जाएगा। - चीन का मौन लेकिन निर्णायक उदय:
युद्ध के दौरान चीन ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन हर मंच पर उसने अमेरिका और इज़राइल की नीतियों की आलोचना की। वह धीरे-धीरे खुद को वैकल्पिक महाशक्ति के रूप में पेश कर रहा है, भले ही अभी दूरी बाकी हो। - नए वैश्विक ध्रुवीकरण की शुरुआत:
यह युद्ध एक नए भू-राजनीतिक ध्रुवीकरण की भूमिका बना गया है — जिसमें अमेरिका-इज़राइल बनाम ईरान-रूस-चीन जैसी रेखाएं स्पष्ट होती जा रही हैं। - भारत की कूटनीतिक अनुपस्थिति:
एक समय ‘गुटनिरपेक्षता’ का झंडाबरदार रहा भारत इस संघर्ष में पूरी तरह अनुपस्थित रहा। मोदी शासन की विदेशनीति घरेलू ध्रुवीकरण और हिंदू-मुसलमान की राजनीति में उलझी हुई दिखी। दुनिया के इस सबसे बड़े संकट पर भारत की चुप्पी असहज करने वाली थी।
यह युद्ध भले ही 12 दिनों में थम गया हो, लेकिन इसके नतीजे वर्षों तक गूंजेंगे। यह न केवल एक सैन्य टकराव था, बल्कि यह एक वैचारिक संघर्ष भी था — तकनीक बनाम जज़्बा, गठबंधन बनाम आत्मनिर्भरता और प्रचार बनाम प्रतिरोध का।
ईरान ने दिखाया कि अगर नेतृत्व में संकल्प हो, तो सुपरपावर की चालों को भी रोका जा सकता है।