मनोरंजन

रतन थियम: भारतीय रंगमंच का एक मौन अध्याय

एक युग का अंत

भारतीय रंगमंच के क्षितिज पर चमकने वाला एक देदीप्यमान सितारा हमेशा के लिए अस्त हो गया। प्रसिद्ध नाटककार, निर्देशक और रंगमंच के पुरोधा रतन थियम का मंगलवार की देर रात निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। उनका जाना केवल मणिपुर के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व रंगमंच के लिए एक अपूरणीय क्षति है। रतन थियम केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संस्था थे; एक ऐसा स्कूल जिसने भारतीय रंगमंच को एक नई, मौलिक और वैश्विक भाषा दी।

कला की जड़ें और वैश्विक दृष्टि

20 जनवरी 1948 को मणिपुर में जन्मे रतन थियम की कलात्मक चेतना अपनी मिट्टी की गहरी जड़ों से सिंचित थी। उनका रंगमंच मणिपुर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, विशेष रूप से पारंपरिक कला रूपों जैसे ‘नट संकीर्तन’ और मार्शल आर्ट ‘थांग-ता’ का एक जीवंत विस्तार था। उन्होंने इन पारंपरिक तत्वों को आधुनिक नाट्यशास्त्र के साथ इस तरह मिश्रित किया कि एक अनूठी दृश्य-काव्य भाषा का जन्म हुआ। उनके नाटकों में संवाद जितने महत्वपूर्ण होते थे, उससे कहीं अधिक शक्तिशाली उनकी देह-भाषा, मंच परिकल्पना, संगीत और प्रकाश का संयोजन होता था।

1976 में इंफाल में ‘कोरस रिपर्टरी थिएटर’ की स्थापना उनके जीवन का एक ऐतिहासिक मोड़ था। यह महज एक नाट्य मंडली नहीं, बल्कि रंगमंच का एक गुरुकुल बना, जहाँ अनुशासन, साधना और कला के प्रति पूर्ण समर्पण का पाठ पढ़ाया जाता था। इसी मंच से उन्होंने ‘चक्रव्यूह’, ‘उरुभंगम’, ‘कर्णभारम’ और ‘अंधा युग’ जैसे कालजयी नाटकों का सृजन किया, जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय रंगमंच को गौरवान्वित किया।

व्यक्तित्व और कृतित्व

रतन थियम का व्यक्तित्व उनकी कला की ही तरह भव्य और अनुशासित था। वे एक पूर्णतावादी थे, जो अपने काम में किसी भी तरह का समझौता नहीं करते थे। उनके नाटकों के विषय अक्सर पौराणिक कथाओं और इतिहास से लिए गए होते थे, लेकिन उनकी प्रस्तुति में एक समकालीन सामाजिक-राजनीतिक चेतना की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई देती थी। युद्ध की विभीषिका, सत्ता का अहंकार, मानवीय पीड़ा और शांति की तलाश उनके नाटकों के केंद्रीय विषय हुआ करते थे। उन्होंने अपने रंगमंच को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि मानवता के लिए एक शक्तिशाली संदेशवाहक बनाया।

पद्म श्री (1989) और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1987) सहित अनगिनत सम्मानों से अलंकृत थियम ने हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े रहना चुना। उन्होंने इंफाल की शांत घाटी में रहकर ही विश्व रंगमंच पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

रतन थियम का निधन एक ऐसा शून्य छोड़ गया है, जिसे भरना असंभव है। उन्होंने भारतीय रंगमंच को जो दिशा और सम्मान दिलाया, वह हमेशा याद रखा जाएगा। उनकी कला, उनके विचार और उनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का एक अंतहीन स्रोत बने रहेंगे। रंगमंच का यह मौन साधक आज भले ही हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके नाटकों की गूंज और उनकी कला की रोशनी हमेशा हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button