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महाराष्ट्र में हिंदी भाषा के नाम पर चल रही राजनीति से भारतीयता पर संकट

भारत विविधताओं का देश है—भाषा, संस्कृति, धर्म और पहचान की दृष्टि से। यही विविधता हमारी सामूहिक भारतीयता की आधारशिला रही है। लेकिन जब यह विविधता राजनीतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल होने लगती है, तो न सिर्फ सामाजिक ताने-बाने को नुकसान होता है बल्कि भारतीयता की मूल भावना—”एकता में अनेकता”—भी संकट में पड़ जाती है। महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को लेकर चल रही राजनीति इसी खतरे का उदाहरण बनकर उभर रही है।

महाराष्ट्र, विशेषकर मुंबई, हमेशा से एक बहुभाषी, बहु-सांस्कृतिक समाज रहा है। यहां मराठी, हिंदी, गुजराती, उर्दू, कोंकणी, अंग्रेज़ी सहित कई भाषाओं के लोग एक साथ रहते आए हैं। हिंदी भाषियों का इस राज्य के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में अहम योगदान रहा है। मुंबई तो दशकों से हिंदी फिल्म उद्योग की राजधानी रही है। बावजूद इसके, समय-समय पर हिंदी भाषा के विरोध की राजनीति जोर पकड़ती रही है, खासकर जब राज्य में चुनाव करीब होते हैं या क्षेत्रीय अस्मिता को हथियार बनाना होता है।

शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और कुछ अन्य मराठी क्षेत्रीय दलों द्वारा हिंदीभाषियों को बाहरी बताकर, उनके खिलाफ हिंसक भाषणबाज़ी या अभियान चलाना कोई नया मामला नहीं है। कभी उत्तर भारतीय रिक्शाचालकों को निशाना बनाया जाता है, तो कभी हिंदी माध्यम स्कूलों को हाशिये पर डालने की कोशिश होती है। अभी हाल के वर्षों में मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने हिंदी में साइनबोर्ड हटाने की धमकी दी, तो दूसरी ओर मराठी भाषा को ‘मूल निवासी पहचान’ के नाम पर अनिवार्य करने की वकालत की गई।

यह राजनीति केवल भाषाई गर्व या मराठी अस्मिता का मामला नहीं है। दरअसल, यह उस गहरे वैचारिक संकट का हिस्सा है जिसमें भारतीय नागरिक की पहचान को क्षेत्रीय भाषाओं और सीमाओं में बांटने की कोशिश की जाती है। यह सवाल सिर्फ हिंदी बनाम मराठी का नहीं है, बल्कि भारतीयता बनाम संकीर्ण प्रांतीयता का है। यदि हम भाषा के आधार पर एक-दूसरे को पराया समझने लगें, तो क्या हम वाकई ‘भारत’ के नागरिक रह जाएंगे?

भारतीय संविधान हर नागरिक को कहीं भी बसने, काम करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। हिंदी भारत की राजभाषा है और देश के सबसे बड़े हिस्से की संपर्क भाषा भी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह किसी अन्य भाषा पर थोपी जाए, और न ही यह स्वीकार किया जा सकता है कि हिंदी भाषियों को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाए। यह दोनों ही चरमपंथी दृष्टिकोण भारतीय लोकतंत्र और संघीय ढांचे के लिए घातक हैं।

राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि भाषा के नाम पर समाज को बांटने की कोशिशें अल्पकालिक लाभ तो दे सकती हैं, लेकिन दीर्घकालिक नुकसान देश की एकता और अखंडता को होता है। भाषा को संघर्ष का मुद्दा नहीं, संवाद और सह-अस्तित्व का माध्यम बनाना होगा।

महाराष्ट्र की धरती को छत्रपति शिवाजी महाराज, संत तुकाराम और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की विरासत मिली है—जो समावेशिता और समानता के प्रतीक हैं। आज ज़रूरत है कि उनके विचारों को आगे बढ़ाया जाए, न कि भाषा की दीवार खड़ी कर समाज को खंडित किया जाए।

निष्कर्षतः, हिंदी भाषा के नाम पर महाराष्ट्र में जो राजनीति हो रही है, वह सिर्फ एक भाषा या समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि भारतीयता के उस मूल स्वभाव के खिलाफ है जो सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। हमें यह तय करना होगा कि हम कैसा भारत चाहते हैं—भाषाओं में बंटा हुआ या भाषाओं से समृद्ध हुआ।

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