संपादकीय

चेतावनी की घंटी: हिमाचल में बादल फटने की घटनाओं का बढ़ता खतरा

हिमाचल प्रदेश, जिसे देवभूमि कहा जाता है, अब देवताओं से अधिक आपदाओं की भूमि बनती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में बादल फटने (क्लाउडबर्स्ट) की घटनाएं यहाँ तेजी से बढ़ी हैं और इनकी तीव्रता भी भयावह होती जा रही है। यह न केवल जलवायु परिवर्तन की चेतावनी है, बल्कि मनुष्य-जनित लालच और अंधविकास के दुष्परिणामों की एक खौफनाक तस्वीर भी है।

2023 और 2024 के मानसून सत्रों में हिमाचल प्रदेश ने बादल फटने, भूस्खलन और अचानक आई बाढ़ (फ्लैश फ्लड) की जो मार झेली, वह अभूतपूर्व थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, केवल 2024 के मानसून के दौरान 51 बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें 30 से अधिक लोग मारे गए और दर्जनों लापता हुए। वहीं 2023 की बरसात ने 330 से अधिक लोगों की जान ली थी और राज्य को हजारों करोड़ रुपये की क्षति पहुँची थी। कुल्लू, मंडी, कांगड़ा, शिमला और लाहौल-स्पीति जैसे जिलों में यह घटनाएं बार-बार हुई हैं।

इन घटनाओं के पीछे जलवायु परिवर्तन की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। तापमान में मामूली वृद्धि से वायुमंडल में नमी की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे अत्यधिक वर्षा और बादल फटने जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं। लेकिन यह कहानी केवल मौसम की नहीं, बल्कि मानव की भी है।

हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्यों में पिछले कुछ दशकों से अंधाधुंध निर्माण कार्य हो रहे हैं। पर्यावरणीय आकलन के बिना बन रहे होटल, सड़कों की कटिंग, सुरंगें और बांध, जलधाराओं के मार्गों में अवरोध, नदियों के किनारे बसी बस्तियाँ—इन सबने प्राकृतिक असंतुलन को बढ़ावा दिया है। पहाड़ों की आत्मा से छेड़छाड़ अब मौत बनकर बरस रही है।

विशेषज्ञों की मानें तो हिमाचल में बादल फटने की घटनाएं अब केवल प्राकृतिक आपदा नहीं रहीं, बल्कि ये ‘अविकसित नीति और अदूरदर्शी विकास’ की चेतावनी हैं। आधुनिक बस्तियाँ उन इलाकों में बसाई जा रही हैं जहाँ भूस्खलन की संभावना अधिक है। नदियों की मूल धारा को संकरा कर दिया गया है, जिससे पानी के बहाव का दबाव बढ़ जाता है और थोड़ी सी बारिश में ही तबाही मच जाती है।

2025 की जून की शुरुआत में ही कुल्लू और कांगड़ा में बादल फटने से कई घर बह गए, लोग लापता हो गए और राज्य सरकार को राहत एवं बचाव के लिए एनडीआरएफ बुलानी पड़ी। मौसम विभाग ने लगातार ऑरेंज और येलो अलर्ट जारी किए हैं, लेकिन स्थायी समाधान की दिशा में प्रयास नगण्य हैं।

यह सब कुछ सिर्फ हिमाचल की त्रासदी नहीं है—यह पूरे हिमालयी क्षेत्र की कहानी है। उत्तराखंड, कश्मीर और नेपाल के पर्वतीय हिस्से भी इसी तरह के संकट से जूझ रहे हैं। इसलिए ज़रूरत है कि हम इन घटनाओं को केवल मौसम की मार मानकर नजरअंदाज न करें, बल्कि यह समझें कि यह हमारी विकास नीतियों की असफलता का परिणाम है।

अब समय आ गया है कि सरकारें केवल आपदा के बाद राहत पैकेज घोषित करने तक सीमित न रहें, बल्कि आपदा पूर्व चेतावनी तंत्र, पर्यावरणीय नियमन, स्थायी विकास नीति और स्थानीय समुदायों की भागीदारी को प्राथमिकता दें।

हमारे पास दो विकल्प हैं—या तो हम प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर विकास करें, या फिर हर मानसून में पहाड़ों की गोद से लाशें उठाते रहें। हिमाचल में बादल फटने की घटनाएं केवल पानी की नहीं, बल्कि चेतावनी की बूँदें हैं—अगर अब भी न चेते, तो कल शायद चेतने का अवसर ही न बचे।

मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी (PHE) विभाग में मंत्री संपतिया उइके के खिलाफ उठे भ्रष्टाचार के आरोपों और उसके बाद हुए घटनाक्रम ने राज्य की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह प्रकरण केवल एक मंत्री पर लगे आरोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि शासन के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय, संवाद और प्रक्रिया का किस हद तक अभाव है। यह घटना इस ज्वलंत प्रश्न को भी जन्म देती है कि क्या मध्यप्रदेश में राज-काज पर राजनीतिक नेतृत्व का नियंत्रण ढीला पड़ रहा है और अधिकारी अपने विवेक से फैसले ले रहे हैं?

मामले की शुरुआत एक पूर्व विधायक द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) में की गई 1000 करोड़ रुपए की घूस की शिकायत से होती है। PMO का हस्तक्षेप मामले को गंभीर बनाता है, और जब वहां से 7 दिनों के भीतर रिपोर्ट मांगी जाती है, तो किसी भी प्रशासनिक तंत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता से काम करना चाहिए। यहीं से व्यवस्था की पहली और सबसे बड़ी चूक सामने आती है। विभाग के प्रमुख अभियंता (ENC) ने सीधे मंत्री और एक अन्य अभियंता की संपत्तियों की जांच का लिखित आदेश जारी कर दिया। यह एक असाधारण और प्रक्रिया के विरुद्ध कदम था। किसी भी मंत्री के खिलाफ विभागीय जांच का आदेश देना एक नीतिगत और राजनीतिक रूप से संवेदनशील निर्णय होता है। इस तरह की कोई भी जांच मुख्यमंत्री की जानकारी और उनकी स्पष्ट सहमति के बिना शुरू नहीं की जा सकती। यह मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी और मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार का सीधा उल्लंघन है।

यहां कई गंभीर प्रश्न उठते हैं। क्या PMO से आया पत्र विभाग के प्रमुख सचिव (PS) की जानकारी में नहीं था? यह लगभग असंभव है। PMO से आया पत्र शीर्ष प्रशासनिक अधिकारी को ही संबोधित होता है। यदि PS को जानकारी थी, तो क्या उन्होंने इसकी सूचना राज्य के प्रशासनिक मुखिया, यानी मुख्य सचिव (CS) को दी? और यदि CS की जानकारी में यह था, तो क्या मुख्यमंत्री को इससे अनभिज्ञ रखा गया? किसी भी सूरत में, यह एक गंभीर प्रशासनिक विफलता है। यदि निचले स्तर के अधिकारी ने शीर्ष नेतृत्व को दरकिनार किया, तो यह अनुशासनहीनता है। और यदि शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री से जानकारी छिपाई, तो यह एक राजनीतिक साजिश की ओर इशारा करता है।

मामले का दूसरा पहलू और भी चिंताजनक है। जैसे ही जांच के आदेश की प्रति मीडिया में लीक हुई, विभाग ने आनन-फानन में, बैतूल के एक कार्यपालन यंत्री की रिपोर्ट का हवाला देकर, मंत्री को “क्लीन चिट” दे दी। यह कदम पूरी जांच प्रक्रिया को एक मजाक बना देता है। एक हजार करोड़ के गंभीर आरोप की जांच एक जिले के अभियंता की रिपोर्ट के आधार पर कुछ ही घंटों में कैसे पूरी हो सकती है? यह लीपापोती का स्पष्ट प्रयास लगता है, जिसने सरकार की मंशा पर और गहरे सवाल खड़े कर दिए।

अब इस मामले में उप मुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ला का बयान आता है कि जांच का आदेश देने वाले प्रमुख अभियंता पर कार्रवाई होगी। यह बयान स्थिति को संभालने के बजाय और उलझा देता है। यह “चोर को छोड़कर कोतवाल को डांटने” जैसा है। यदि ENC ने प्रक्रिया का उल्लंघन किया तो उन पर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन कार्रवाई का यह ऐलान उस मूल शिकायत को संबोधित नहीं करता जिसके कारण यह पूरा बखेड़ा खड़ा हुआ। यह जनता में यह धारणा बनाता है कि सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने के बजाय उसे दबाने और मामले को रफा-दफा करने में अधिक रुचि रखती है।

अंततः, यह प्रकरण इस सवाल का सीधा जवाब नहीं देता कि “क्या अधिकारी अपने हिसाब से राज-काज चला रहे हैं?” बल्कि, यह एक अधिक भयावह तस्वीर पेश करता है – प्रशासनिक अराजकता और कमजोर राजनीतिक नियंत्रण की। यह “ब्यूरोक्रेटिक राज” का नहीं, बल्कि समन्वय और संवाद के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने का मामला है। एक सुचारू “ब्यूरोक्रेटिक राज” में भी चीजें इतनी अस्त-व्यस्त और सार्वजनिक रूप से शर्मनाक तरीके से सामने नहीं आतीं। यह घटना दर्शाती है कि शायद सरकार के भीतर विभिन्न शक्ति केंद्र काम कर रहे हैं, संवादहीनता चरम पर है और मुख्यमंत्री का राजनीतिक और प्रशासनिक इकबाल कमजोर पड़ रहा है, जिसके चलते एक शीर्ष अधिकारी मंत्री के खिलाफ जांच के आदेश देने की हिम्मत कर सकता है और फिर उसी तेजी से पीछे हट भी सकता है। यह स्थिति किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

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