राजनीति

ऑपरेशन सिंदूर से लेकर मणिपुर तक: एक साल की असल तस्वीर

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा हो चुका है। यह वर्ष उन दावों और प्रदर्शन की परीक्षा का रहा, जिनके सहारे सरकार सत्ता में तीसरी बार लौटी थी। उपलब्धियों की सूची सरकार के पास लंबी हो सकती है, लेकिन जनसरोकारों के सवाल आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं।

इस एक वर्ष में सरकार की सबसे बड़ी और तात्कालिक उपलब्धियों में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को रखा जा सकता है। यह वही सैन्य कार्रवाई है जिसे पहलगाम में आतंकियों द्वारा पर्यटकों पर किए गए हमले के जवाब में अंजाम दिया गया। भारत ने पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों को लक्षित करते हुए यह स्पष्ट संदेश दिया कि आतंकी हमलों का माकूल जवाब अब सैन्य स्तर पर ही दिया जाएगा।
सरकार के लिए यह अभियान केवल कूटनीतिक और सामरिक नहीं, बल्कि आंतरिक जनाक्रोश को संतुलित करने का माध्यम भी बना। इससे यह भी जाहिर हुआ कि केंद्र सरकार अब ‘रणनीतिक धैर्य’ के स्थान पर ‘सक्रिय प्रतिरोध’ की नीति अपना रही है।

इसी साल चंद्रयान-3 की सफलता और G20 की मेज़बानी ने भारत को वैश्विक मंच पर एक जिम्मेदार और सक्षम नेतृत्वकर्ता के रूप में पेश किया।
बुनियादी ढांचे, डिजिटल भुगतान, और वैश्विक कूटनीति के मोर्चे पर सरकार ने अपनी पकड़ बनाए रखी।

मगर, देश के भीतर जो समस्याएं थीं, वे न तो कम हुईं और न ही उनसे नज़रें फेरना मुनासिब होगा। मणिपुर की हिंसा इस एक वर्ष का सबसे शर्मनाक अध्याय रही। महीनों तक जातीय संघर्ष चलता रहा, सैकड़ों लोग विस्थापित हुए, लेकिन केंद्र की ओर से न तो कोई ठोस हस्तक्षेप हुआ और न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन।

बेरोजगारी और महंगाई भी जनजीवन को उसी तरह कचोटती रही, जैसे पहले करती रही है। संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर उठते सवाल अब सामान्य आलोचना नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव पर गंभीर चिंता बन चुके हैं।

इस तरह एक ओर जहां सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर जैसे निर्णायक कदम उठाकर अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया, वहीं मणिपुर जैसी आंतरिक त्रासदियों पर चुप्पी उसकी नैतिक जवाबदेही पर प्रश्नचिन्ह लगाती रही।

लोकतंत्र केवल सीमाओं की रक्षा भर नहीं होता, बल्कि समाज के भीतर न्याय, समता और विश्वास को ज़िंदा रखने का माध्यम होता है। सरकार को यह संतुलन साधना होगा—वरना सैन्य सफलता की चमक भी जनाक्रोश की धुंध में ओझल हो सकती है।

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